Category: Hindi

  • अधजला प्लास्टर

    शाम को जब वो मुस्कुराके बुलाती थी
    नींद भी माँ की लोरी सुनने आती थी

    बस उतने पैसे थे कि किताबें ले लूं
    माँ टीचर थी दुआओं में कमाती थी

    इस्त्री के कोयले जब महँगे हो गये थे
    बिस्तर के नीचे माँ कपड़े दबाती थी

    मोगरे का पौधा जो पापा लगा गुज़रे
    उसी के फूल के माँ गजरे लगाती थी

    पान थूंकते न जाने कब खूँ थूंकने लगे
    पापा को फूल नहीं माँ पान चढ़ाती थी

    मुझे आलू के सिवा कुछ न पसंद था
    पर टिफ़िन में माँ सब्ज़ी ही सजाती थी

    क्या अधजले प्लास्टर को भूल गया ‘मिसरा’
    टूटे हाथ से भी जब माँ खाना पकाती थी

  • फ़ुज़ूल

    उन जैसे लोगों से लड़ाई फ़ुज़ूल है
    जो कहते हैं चाय पे मलाई फ़ुज़ूल है

    नए नए कर्ज़ों में फसना ही है जब
    पुराने कर्ज़ों से रिहाई फ़ुज़ूल है

    अदालत के फ़ैसले से डर ही नहीं तो
    अदालत में नई सुनवाई फ़ुज़ूल है

    जो बेटी के होने पे रोते हैं उनपे
    बेटे के होने की बधाई फ़ुज़ूल है

    लिंग की लंबाई से नापते हैं यहां तो
    समझदारी की इकाई फ़ुज़ूल है

    दो वक़्त का सुकून भी नसीब नहीं जब
    ये राजाओं जैसी कमाई फ़ुज़ूल है

    नौकरी से खुद इस्तीफ़ा दे आ ‘मिसरा’
    इस जंगल में तेरी परसाई फ़ुज़ूल है

  • शिकायत

    सबको हम से यही शिकायत है
    कि हमको सब से ही शिकायत है

    गुज़रते हुए हर पल को मुझसे
    माज़ी में जीने की शिकायत है

    उसके बाहों में कैसे सो जाऊं
    वहां तो घुटन की शिकायत है

    अपना कुछ अलग करना है पापा
    सागर से क़तरे की शिकायत है

    सरकार से बस इक सवाल पूछा था
    उन्हें लगा नई शिकायत है

    कुछ लेके कुछ ज़्यादा दिया ‘मिसरा’
    क्यों ख़ुदा से फिर भी शिकायत है

  • ब्लॉक

    ख़यालों से कह दूं निकल आएं
    हो सके तो बनके ग़ज़ल आएं

    बोए थे अल्फ़ाज़ इस उम्मीद में कि
    अश्कों के मौसम में फसल आएं

    और कितना इंतेज़ार करें ऐसे
    ऑफिस चलें, कपड़े बदल आएं

    आएं हैं तो सफ़हा भर देते हैं
    चाहे लफ़्ज़ों के हमशकल आएं

    आज हम ने कुछ भी लिखा है ‘मिसरा’
    पढ़ने वालों से कह दूं कल आएं

  • सवाल जवाब

    ख़ुद को सवाल:

    पढ़े लिखे हो मेहनत से क्यों डरते हो
    कुछ ढंग का करलो शायरी क्यों करते हो

    क्या रक्खा है ऐसी महफ़िलों में जहां
    झूठी वाहवाही पे तुम इतना मरते हो

    न नाम है न पैसा है और न है सुकून
    क्यों हर सुबह एक नया सफ़हा भरते हो

    कुछ तो लिहाज़ करो उन घंटों का ‘मिसरा’
    जिन्हें बर्बाद करने तुम रोज़ उतरते हो

    ख़ुद का जवाब:

    इक नशा है ख़यालों को निखारने में
    हक़ीक़त को अश’आरों से संवारने में

    सच का नारियल सबके सर गिरता है
    समझदारी है ख़ुद चढ़के उतारने में

    वक़्त की कीमत वो क्या समझाएगा जिसका
    दिन गुज़र जाता है दिन गुज़ारने में

    पढ़े लिखे हो कुछ ढंग का करलो ‘मिसरा’
    सालों लग जाएंगे मुझे सुधारने में

  • काश…

    हर खयाल मेरा नया सा लगे
    शेर के पंख लिए उड़ता सा लगे

    एक मिसरा भी गर कट जाए तो शेर
    कोई जटायु गिरा सा लगे

    ज़ुबां पे छोड़े नीम की कड़वाई
    पर दिल को शेर ग़वारा सा लगे

    कोई पढ़ ले तो हलका सा लम्स हो
    कोई सुन ले तमाचा सा लगे

    शायरी का वो बाज़ीगर बनूं
    सामने जीता भी हारा सा लगे

    इतना बदनाम हो जाऊं मैं ‘मिसरा’
    रो भी दूं तो तमाशा सा लगे

  • सब अच्छा है

    तअज्जुब नहीं देश की हालात को अच्छा कहता है
    भला कौन अपने ही छाछ को खट्टा कहता है

    दूसरे को उंगली दिखाना तो आदत है इसका
    करके वही जुर्म ख़ुदको वतनवफ़ा कहता है

    याद दिलाता है कभी कभी उस फ़िरऔन की जो
    रेगिस्तान में अश्क़ों से भरने कुंआ कहता है

    अब भरोसा नहीं होता उस बुज़ुर्ग पर जो
    लाल लाल सेब दिखाकर उन्हें मीठा कहता है

    सांप को यूँ ही बदनाम कर रखा है हम लोगों ने
    इंसान ही ज़हर घोल के उसे दवा कहता है

    देख तूने दोबारा किसे जिताया है ‘मिसरा’
    जो खुद ही आग लगाके धुँआ धुँआ कहता है

  • कुछ बदला नहीं

    सब जानते हैं ऐसा कभी हुआ नहीं
    कि गलत मैं हूं सारी दुनिया नहीं

    मशवरा देने सब तय्यार बैठे हैं
    ज़ुबां पे किसीके सच्ची दुआ नहीं

    वो ख़ुदा है क्या कि हर रास्ता उस तक है
    कोई गलत मोड़ नहीं जो लिया नहीं

    इकलौता दिल था जो उसे दे दिया था
    वो चली भी गयी दिल वापस किया नहीं

    खाली हाथ ही जाता हूं किसी से मिलने
    सब दे चुका हूं देने कुछ रहा नहीं

    नए बदन से लिपटता हूं मगर
    इस बदन को उस बदन से वफ़ा नहीं

    मुशायरों में बस तरस मिलता है अब
    कहते हैं ये पहले सा ‘मिसरा’ नहीं

  • गुम हैं

    क़ुदरत के हर इशारे में जितने नज़ारे गुम हैं
    हर नज़ारे में क़ुदरत के उतने इशारे गुम हैं

    कहते हैं ये झरना हर साल नया रास्ता काटता है
    इसके धार में न जाने कितने किनारे गुम हैं

    महसूस होता है जब जलता है चट्टानों पे बदन
    कि सूरज की हर किरण में कितने अंगारे गुम हैं

    हर पत्थर के हर ठोकर से दोबारा चलना सीखा
    अच्छा है कहीं शहर के सारे सहारे गुम हैं

    मन करता है यहीं बैठे गिनता रहूँ ‘मिसरा’
    शहरी फ़लक़-ए-ज़ार के तमाम सितारे गुम हैं

  • ज़्यादा है

    माना वस्ल की राहत में राहत ज़्यादा है
    अनार भी स्वाद है पर मेहनत ज़्यादा है

    होंगे और भी दुःख मोहब्बत के सिवा
    वही ढूँढ लें जिन्हें फुरसत ज़्यादा है

    होगा इश्क़ भी हिमालय के पानी सा पाक
    पहले मुफ़्त मिलता था अब कीमत ज़्यादा है

    ज़िन्दगी भी बस एक उम्र-क़ैद की सज़ा है
    जीने की ख्वाहिश कम है मोहलत ज़्यादा है

    तक़दीर भी क्या क्या मज़े लेता है मुझसे
    ये उसकी शरारत कम फितरत ज़्यादा है

    तुझसे खूब शिक़वे हैं पर ये नहीं ‘मिसरा’
    कि तेरे मिसरों में हक़ीक़त ज़्यादा है