तअज्जुब नहीं देश की हालात को अच्छा कहता है
भला कौन अपने ही छाछ को खट्टा कहता है
दूसरे को उंगली दिखाना तो आदत है इसका
करके वही जुर्म ख़ुदको वतनवफ़ा कहता है
याद दिलाता है कभी कभी उस फ़िरऔन की जो
रेगिस्तान में अश्क़ों से भरने कुंआ कहता है
अब भरोसा नहीं होता उस बुज़ुर्ग पर जो
लाल लाल सेब दिखाकर उन्हें मीठा कहता है
सांप को यूँ ही बदनाम कर रखा है हम लोगों ने
इंसान ही ज़हर घोल के उसे दवा कहता है
देख तूने दोबारा किसे जिताया है ‘मिसरा’
जो खुद ही आग लगाके धुँआ धुँआ कहता है