शाम को जब वो मुस्कुराके बुलाती थी
नींद भी माँ की लोरी सुनने आती थी
बस उतने पैसे थे कि किताबें ले लूं
माँ टीचर थी दुआओं में कमाती थी
इस्त्री के कोयले जब महँगे हो गये थे
बिस्तर के नीचे माँ कपड़े दबाती थी
मोगरे का पौधा जो पापा लगा गुज़रे
उसी के फूल के माँ गजरे लगाती थी
पान थूंकते न जाने कब खूँ थूंकने लगे
पापा को फूल नहीं माँ पान चढ़ाती थी
मुझे आलू के सिवा कुछ न पसंद था
पर टिफ़िन में माँ सब्ज़ी ही सजाती थी
क्या अधजले प्लास्टर को भूल गया ‘मिसरा’
टूटे हाथ से भी जब माँ खाना पकाती थी