ख़ुद को सवाल:
पढ़े लिखे हो मेहनत से क्यों डरते हो
कुछ ढंग का करलो शायरी क्यों करते हो
क्या रक्खा है ऐसी महफ़िलों में जहां
झूठी वाहवाही पे तुम इतना मरते हो
न नाम है न पैसा है और न है सुकून
क्यों हर सुबह एक नया सफ़हा भरते हो
कुछ तो लिहाज़ करो उन घंटों का ‘मिसरा’
जिन्हें बर्बाद करने तुम रोज़ उतरते हो
ख़ुद का जवाब:
इक नशा है ख़यालों को निखारने में
हक़ीक़त को अश’आरों से संवारने में
सच का नारियल सबके सर गिरता है
समझदारी है ख़ुद चढ़के उतारने में
वक़्त की कीमत वो क्या समझाएगा जिसका
दिन गुज़र जाता है दिन गुज़ारने में
पढ़े लिखे हो कुछ ढंग का करलो ‘मिसरा’
सालों लग जाएंगे मुझे सुधारने में