तुम कलकत्ता के नाती हो
हम बरहमपुर के पोते हैं
पर रिश्ते में एक दूजे के हम
हमशिकवा ही होते हैं
सोचा था नज़्में घोलेंगे
लोगों की आँखें खोलेंगे
शिकवों की तलवारों से
दुनिया पे धाबा बोलेंगे
क्यों लिखने के टाइम पे फ़िर
हम चादर ओढ़ के सोते हैं
तुम कलकत्ता के नाती हो
हम बरहमपुर के पोते हैं
कभी बिरियानी की स्वाद में
या अंग्रेज़ी अनुवाद में
फस जाने का बहाना कर
हम कह देते हैं “बाद में”
यूँ फुरसत की किनारों पे
क्यों गंगा में हाथ धोते हैं
तुम कलकत्ता के नाती हो
हम बरहमपुर के पोते हैं
अब वक़्त है कागज़ फाड़ने का
कुछ शेर नया दहाड़ने का
“मसरूफ़” नाम के तिनके को
दाढ़ी से अपने झाड़ने का
ए वारिस रस्म-ए-नज़्मों की
चल नया मिसरा फिरोते हैं
तुम कलकत्ता के नाती हो
हम बरहमपुर के पोते हैं