क़ुदरत के हर इशारे में जितने नज़ारे गुम हैं
हर नज़ारे में क़ुदरत के उतने इशारे गुम हैं
कहते हैं ये झरना हर साल नया रास्ता काटता है
इसके धार में न जाने कितने किनारे गुम हैं
महसूस होता है जब जलता है चट्टानों पे बदन
कि सूरज की हर किरण में कितने अंगारे गुम हैं
हर पत्थर के हर ठोकर से दोबारा चलना सीखा
अच्छा है कहीं शहर के सारे सहारे गुम हैं
मन करता है यहीं बैठे गिनता रहूँ ‘मिसरा’
शहरी फ़लक़-ए-ज़ार के तमाम सितारे गुम हैं