मेज़ पे बैठा कवी, लिखने चला वो इक ग़ज़ल
मन से चुन कर द्वेष सारी रख दी उसने इक बगल
फिर भी ज़ुर्रत क्या हुई, कागज़ जो उससे रुठ गया
छोड़ उसको मेज़ पर, कागज़ वहाँ से उठ गया
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मेज़
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कागज़ के गेंदाफूल
कटे मिसरों के घाव लिए
बिखरे कागज़ के गेंदाफूल
याद करते हैं उन लम्हों को
जब क़लम का छूना भाता थालावारिस हलके झोकों में
एक दूजे की दूरी को भेद
बात करते हैं उन सपनों की
जहाँ खुलके उड़ना आता था -
पुनः मिलन
मैं जाना था तुम ज्ञानी हो ।
अब लगता है अभिमानी हो ।
भुलाके सारे यौवन वर्ष
स्मरण है केवल एक दिवस?
जब तर्क तर्क में फर्क उठा,
टेके फणा एक सर्प उठा,
विषैले शब्द और क्रोध कठोर
थे कोटी कोटी क्षत दोनों ओर ।
थे छल छल दोनों के नयन
पर छूने का न किया चयन ।
कटके उस दिन दो राह चले
करके काजल को स्याह चले ।माना उस दिन हम बच्चे थे ।
नादान, हृदय के कच्चे थे ।
पर अब तो पक के गल चुके
देख हज़ार हलचल चुके ।
कब तक जलें अभिमान में ?
आ मिलें सुलह संधान में ।
क्या मेरे कम हैं नखरें सब
कि जोड़ोगे उसमें तुम अब ?
गर द्वेष अभी भी है प्रखर
लो झुकता हूं नत के मैं सर ।
बस जल्दी से इंसाफ़ करो –
या दे दो दंड या माफ़ करो । -
Welcoming 2018
नए साल में सब मोहब्बत कर रहे हैं
और हम हैं कि शिकायत कर रहे हैंवक़्त तो आ गया है कि वक़्त बदले
पर हम फिर वही शरारत कर रहें हैं‘अठरा में सुना है कि सब है माफ़
हम भी इंतेज़ार-ए-इनायत कर रहे हैंलोग बनाने लगे हैं सपने हकीक़त
हम हकीक़त ही क़यामत कर रहें हैंइजाज़त थी पढ़ने को एक ही मिसरा
हम फ़िर तौहीन-ए-इजाज़त कर रहें हैंनए साल में सब मोहब्बत कर रहे हैं
और हम हैं कि शिकायत कर रहे हैं