Category: Hindi

  • एक और तुम हूँ

    सौ जवाब दे कर जितना सीखा है
    एक सवाल पूछ कर उतना सीखा है

    क्या मिला है सभी को धोखा देकर
    ख़ुद ही को धोखा देना सीखा है

    सारी दुनिया से दूर आकर अब
    ख़ुद ही में ख़ुदा ढूंढना सीखा है

    तोलता था जिसमें मैं हर किसी को
    उस तराज़ू को तोड़ना सीखा है

    बदी में खूब हैं नैकि के मौके
    शब में भी सुबह देखना सीखा है

    अपनी ख़ामियों को जान कर मैंने
    ज़िम्मेदारीयां लेना सीखा है

    लाख सायों की है ये रात अंधेरी
    हर साये में निखारना सीखा है

    रूह के जलने का अब ख़ौफ़ नहीं
    मैंने कोयलों पे भागना सीखा है

    कल ओर कल के साईकल से निकल कर
    आज को आज ही में जीना सीखा है

    न देकर कम न लेकर ज़्यादा हूँ
    ये सच सिखाके सीखना सीखा है

    तेरी ज़ुबां जानता नहीं हूँ पर
    उस ज़ुबां में भी हसना सीखा है

    मैं तुम हूँ, हाँ, एक और तुम हूँ मिसरा
    तुम्हें गले लगाना सीखा है

  • कहते हैं 

    तेरे लम्हों से जुड़कर दिलचस्प हुआ कहते हैं 
    तुमसे मिलकर मैं नया शक़्स हुआ कहते है 

    मैं तेरी ओर इशारे से दिखाता हूँ घर 
    वो तो नादान हैं रिहाइश को पता कहते हैं 

    तुम मेरे पास भी न हो कर हो करीब मेरे 
    क्या यही राब्ता है जिसको वफ़ा कहते हैं 

    तेरे ही ख़ाब सजाने में गुज़रते हैं पल
    इन्तेज़ारी के सिवा किसको सज़ा कहते हैं 

    मैं ने तो कोई भी मिसरा दोहराया नहीं 
    क्यों तेरे नाम की ग़ज़ल को नशा कहते हैं

  • छपवा दो इस्तेहार

    हाँ छपवा दो फ़ोटो इस्तेहार में कोई
    बैठा है ना मेरे इंतिज़ार में कोई

    अंगूठा स्वाइप करने का है ज़माना
    क्यों अंगूठी ख़रीदे बेकार में कोई

    मैं खो चुका हूँ किताबखानों में कब से
    ढूंढ रहा है मुझे पब-ओ-बार में कोई

    कहां नूर जहां में लिपटा शहनशाह था
    कहां बेनूर दफ़्न हूँ इक दीवार में कोई

    सीख गया हूँ डूबते को लोहा बेचना
    रख लो मुझे अपने कारोबार में कोई

    हर मिसरा धुंआ धुंआ सा उड़ रहा है
    जैसे लिखा हो ग़ज़ल बुख़ार में कोई

  • क्यों नही पाता

    इस सपने को आंखों से हटा क्यों नही पाता
    मुक़म्मल न करने की सज़ा क्यों नही पाता

    इक आफ़ताब ए ज़ुर्रत की ज़रूरत है आसमां को
    ज़मीं पर एक लौ भी मैं जला क्यों नही पाता

    दो बूंद की तिश्नगी है उसे मेरे चाहत की
    इश्क़ का त्सुनामी हूँ पर बुझा क्यों नही पाता

    हज़ार ज़ख्मों का कर्ज़ है चुकाना मेरा फ़र्ज़ है
    ज़ुबां पे बंदूक है पर चला क्यों नही पाता

    कागज़ भी है कलम भी और कहने को एक बात भी
    फ़िर शायरी की कमी को मिटा क्यों नही पाता

    डूबा लार के दागों में एक अकेला मिसरा है
    कॉफ़ी पिला कर उसे जगा क्यों नही पाता

  • मसीहा

    क्या पानी को भी मै बनाने वाला मसीहा था
    या प्यासों को पानी पिलाने वाला मसीहा था

    कौन जानता है मो’अजिज़ें उसने किये कि नहीं
    सभी के ख़िदमत में खो जाने वाला मसीहा था

    इस ख़ुदा के बंदे में ख़ुदा पाना मुश्किल नहीं
    हर बंदे में ख़ुदा को पाने वाला मसीहा था

    काफ़ियों ने कोशिशें की तोड़ने उसका हौसला
    टूटे को भी हौसला दिलाने वाला मसीहा था

    चढ़ा तो दिया बेगुनाह ही उसे सलीब पर
    सबके गुनाह खुद पे चढ़ाने वाला मसीहा था

    आंखों से लहु बहाने वाले बहुत थे वहां
    हर घाव से आंसू बहाने वाला मसीहा था

    हर सदमे पे तूने उसको गालियां दी है मिसरा
    हर सदमे को सबक बनाने वाला मसीहा था

  • बदलाव

    है नहीं कि अमीर ही अमीर बनते हैं
    छे कदम में प्यादे भी वज़ीर बनते हैं

    सही को सही जानना फ़िर भी है आसान
    गलत को गलत जानकर ज़मीर बनते हैं

    माशूक़ को मुख़ालिफ़ बना देता है शक
    भरोसे से मनहूस भी बशीर बनते हैं

    पैदाइश भी नहीं परवरिश भी नहीं
    बस करम से जुलाहे कबीर बनते हैं

    बेख़ौफ़ ही लिखता चल तू मिसरे पे मिसरा
    शायरी है सुधरे भी शरीर बनते हैं

  • क्या दोगे

    घर नहीं दे पाए इमारत क्या दोगे
    ये कासा भर दो बाकी दौलत क्या दोगे

    छोड़ गए इस मासूम को गलती बुला कर
    अब इसकी खामोशी की कीमत क्या दोगे

    नाम जानता है सारा मोहल्ला तुम्हारा
    अब इससे भी ज़्यादा शौहरत क्या दोगे

    बंद कर लेते हो कान मुझे गरजता देख
    बादल हूँ रोने की इजाज़त क्या दोगे

    मोहब्बत तो तुमसे कभी दी ही नहीं गयी
    अब देर हो गयी है अब इज़्ज़त क्या दोगे

    सकते हो तो दो इसे नाम अपना ‘मिसरा’
    पहचान से बड़ी अब विरासत क्या दोगे

  • न हो सके

    अपने कलाम में तुम आबाद न हो सके
    तंखादार रह गए आज़ाद न हो सके

    बस बोलते रहे कि दुनिया घूमोगे
    तुम बरहमपुर के भी सिंदबाद न हो सके

    बंदूक भी हो सर पे तुम क्या ही कहोगे
    जां बचाने भी शहरेज़ाद न हो सके

    याद होंगे तुम्हें अपने अश’आर सारे पर
    अफ़सोस है किसी और को याद न हो सके

    क्यों करते हो कंजूसियां दादबक्षी में
    खुद तो कभी क़ाबिल-ए-दाद न हो सके

    अब क्या ही मिला ख़ुदको बुलाकर मिसरा
    शायर भी बने और बर्बाद न हो सके

  • तुम्हारा लगता है

    गौर करूं तो इनाम तुम्हारा लगता है
    ये राहत-ए-इलहाम तुम्हारा लगता है

    बस मैं जानता हूँ मेरे बिखरने का राज़
    ज़माने को तो काम तुम्हारा लगता है

    है नहीं किसी और को शिकायत मुझसे
    लगता है तो इल्ज़ाम तुम्हारा लगता है

    भाग जाते हैं शराबज़ादे भी यहां से
    गलती से भी गर जाम तुम्हारा लगता है

    कब से ही ऐसा होता आ रहा है ना
    जुर्म मैं करता हूँ नाम तुम्हारा लगता है

    रख लो इस घर को कभी ज़रूरत होगी
    तुम्हें जहां तमाम तुम्हारा लगता है

    ढूंढ ही लूँगा कोई और हमसफ़र मिसरा
    तन्हाई पर अंजाम तुम्हारा लगता है

  • आम खाया नहीं

    साथ में इक पल भी हमने बिताया नहीं
    घुटलियां गिनते रहे आम खाया नहीं

    तू आयी नहीं खिड़की पे कई दिन से
    और इल्ज़ाम है कि मैंने बुलाया नहीं

    ये फूल है मेरे इंतिज़ारी की गवाह
    ऐसा शेर नहीं जो इसे सुनाया नहीं

    ताज़ा है फ़िर भी इतने दिनों से गुलाब
    मैं रोता रहा तो ये मुरझाया नहीं

    इतनी ही अहमियत थी तेरी ‘मिसरा’
    तू गिरता रहा उसने उठाया नहीं