इस सपने को आंखों से हटा क्यों नही पाता
मुक़म्मल न करने की सज़ा क्यों नही पाता
इक आफ़ताब ए ज़ुर्रत की ज़रूरत है आसमां को
ज़मीं पर एक लौ भी मैं जला क्यों नही पाता
दो बूंद की तिश्नगी है उसे मेरे चाहत की
इश्क़ का त्सुनामी हूँ पर बुझा क्यों नही पाता
हज़ार ज़ख्मों का कर्ज़ है चुकाना मेरा फ़र्ज़ है
ज़ुबां पे बंदूक है पर चला क्यों नही पाता
कागज़ भी है कलम भी और कहने को एक बात भी
फ़िर शायरी की कमी को मिटा क्यों नही पाता
डूबा लार के दागों में एक अकेला मिसरा है
कॉफ़ी पिला कर उसे जगा क्यों नही पाता