Month: May 2021

  • बीच में आ गयी

    बनना मुझे शायर था आशिक़ी बीच में आ गयी
    फ़ना इश्क़ में होना था ज़िन्दगी बीच में आ गयी

    शिकस्तगी सी मेरी ये ज़िन्दगानी थी मगर
    पल भर जीत के जीने की तिश्नगी बीच में आ गयी

    घाट घाट ढूंढा मगर इक बूंद फ़तह की मिली नहीं
    तलाश जारी रखता पर मुफ़लिसी बीच में आ गयी

    रात का दिन और दिन की रात करके पैसे जोड़ लिए कुछ
    जम चुका था नौकरी में मायूसी बीच में आ गयी

    हर सुबह हर शाम बस ख़ुदकुशी के खयाल आये
    मौत लेने चला ही था अजनबी बीच में आ गयी

    जीना फिर सिखाया उसने जीना साथ में चाहती थी
    मैं नहीं तय्यार था और खुदगर्ज़ी बीच में आ गयी

    दिल के रेज़े बटोर कर वो चल दी अपने ही रास्ते
    सोचा नाम पुकारूं पर खामोशी बीच में आ गयी

    खामोश भी मैं तन्हा भी न जाने क्या क्या कर जाता
    शुकर मनाओ ‘मिसरा’ शाइरी बीच में आ गयी

  • मैं न रहूँ

    नौ से पांच ये है नहीं
    पर उससे बेहतर भी नहीं
    सर झुका के मैं सर बेचूं
    ऐसी फ़ितरत ही नहीं

    काम है ये मक़सद नही
    कब तक इसे कर पाऊंगा
    सिक्का सिक्का जोड़ के भी
    फुक्कड ही रह जाऊंगा

    वक़्त भी मुझ पर रुके
    ऐसा खुद टीक जाना है
    मैं न रहूँ तो भी रहूँ
    ऐसा कुछ लिख जाना है

    अंदर जो फ़नकार उससे
    मिला नज़र कब पाऊंगा
    तोहफ़ा ये ख़ुदा का मुझपे
    तौहीं थोड़ी कर पाऊंगा

    आवाज़ को अवाम के
    रूह से जा मिलाना है
    ज़हनों में वो जम जाये
    ऐसा वज़न दिलाना है

    वक़्त को फुरसत न हो
    यूँ उसे बेहलाऊँगा
    मैं न रहूँ तो भी रहूँ
    ऐसा कुछ लिख जाऊंगा

  • डर के आने का डर

    डर के आने के डर से घबराता रहा
    शोख़ पत्ते सा टहनी पे थर्राता रहा

    जान न पाया कैसे निकलना है बाहर
    कबूतर सा शीशे से टकराता रहा

    हर माह मेहमान सा आता रहा डर
    हर माह मेज़बान सा ठहराता रहा

    चालीसा सिखाया था दादी ने कभी
    मैं मिट्ठू सा उसे दोहराता रहा

    डर कूदता रहा मुझपे झरने सा ‘मिसरा’
    और डूबते भंवर सा मैं चकराता रहा

  • गुस्सा

    जितनी देर में ये पल जायेगा
    मेरे गुस्से से सब जल जायेगा

    हमारे रिश्ते की मीनारों का
    वो फ़ौलाद भी गल जायेगा

    टूटते तारे से मांगी वो दुआ
    उस ही तारे सा ढल जायेगा

    आंसुओं से आज बचा लोगे पर
    उनमें डूब हमारा कल जायेगा

  • गैरमहफूज़

    न नींद आई न ख़्वाब आया
    उबलता इक डर बेताब आया

    सब पके शेर मिट गए ज़हन से
    अधपके नज़्मों का किताब आया

    टूटे मिसरों और छूटे नुक़्तों संग
    झूठे शायर का ख़िताब आया

    ख़ौफ़-ए-ज़लालत तो पहले से थी
    नकली बेख़ौफ़ि का नकाब आया

    वज़न-ए-थकावट से पलके गिरें
    तभी दस्तक-ए-आफ़ताब आया

    इन आँखों की लाल लकीरों में
    फिर छूटे नींद का हिसाब आया

  • इतने दिनों बाद…

    आये थे तो रुक के मिल लेते
    कुछ रिश्तें दोबारा सिल लेते

    सपने चौखट पे तोड़ गए पर
    वापस तोहफ़ा-ए-दिल लेते

    जो देख कईं शब गुज़ारे थे
    फिर वो नज़ारा-ए-तिल लेते

    ये बाग़ तुमने ही सजाया था
    रुकते तो तुम भी खिल लेते

  • गद्दारी समझ कर

    शायरी को कॉम से गद्दारी समझ कर
    किताबें जला गए बिमारी समझ कर

    घोल उसी राख को सियाही में शायर
    लिखते ही रहे ज़िम्मेदारी समझ कर

    मत’अलों पे मस’अलों की मशालें जलाए
    जनाज़ों पे घूम रहें हैं सवारी समझ कर

    फुज़ूल गोलियां न खर्चो इनपे ये तो
    क़ुर्बानी दे रहे हैं फ़नकारी समझ कर

    नाचोगे खुद उनके हर धुन पे तुम जो
    मग़रूर हो खुदको मदारी समझ कर

    तुम्हारे ताज के नाम भी एक मिसरा पेश है
    सुन लो तबाही की तय्यारी समझ कर

  • सुरूर-ए-शायरी

    जाने जो कहो ये तोे ज़रूर है
    शायरी का अलग ही सुरूर है

    इबादत है ग़ज़लें लिखना मगर
    तुम कहते हो मेरा ये ग़ुरूर है

    रोज़ाना शेरों का बुनना बुनवना
    आदत नहीं मेरा ये दस्तूर है

    इजाज़त दो जुमले कस्ता रहूँ मैं
    फिर कोई शर्त दो वो मंज़ूर है

    खोलके खिड़की खुद देखलो तुम
    जो बह रहा फ़िज़ा-ए-फ़ितूर है

    लिखो एक मिसरा महसूस करलो
    शायरी का अलग जो सुरूर है

  • अब कौन भूलेगा

    टाइम से दवा खाना अब कौन भूलेगा
    टाइम से याद दिलाना अब कौन भूलेगा

    इस लाइब्रेरी से बड़ा वार्डरोब था तेरा
    धुले कपड़े सुखाना अब कौन भूलेगा

    धुंधलाती नहीं है अब शीशें यहां की
    यहां गीज़र बुझाना अब कौन भूलेगा

    चिपकती नहीं है अब मैग्गी बर्तन पे
    इक बार करछुल चलाना अब कौन भूलेगा

    अब कोई नहीं खाता खुदा की कसम
    वादा करके निभाना अब कौन भूलेगा

    पॉप कॉर्न नहीं फैंकता कोई मिसरा सुनके
    वाह वाही बरसाना अब कौन भूलेगा

  • एक और तुम हूँ

    सौ जवाब दे कर जितना सीखा है
    एक सवाल पूछ कर उतना सीखा है

    क्या मिला है सभी को धोखा देकर
    ख़ुद ही को धोखा देना सीखा है

    सारी दुनिया से दूर आकर अब
    ख़ुद ही में ख़ुदा ढूंढना सीखा है

    तोलता था जिसमें मैं हर किसी को
    उस तराज़ू को तोड़ना सीखा है

    बदी में खूब हैं नैकि के मौके
    शब में भी सुबह देखना सीखा है

    अपनी ख़ामियों को जान कर मैंने
    ज़िम्मेदारीयां लेना सीखा है

    लाख सायों की है ये रात अंधेरी
    हर साये में निखारना सीखा है

    रूह के जलने का अब ख़ौफ़ नहीं
    मैंने कोयलों पे भागना सीखा है

    कल ओर कल के साईकल से निकल कर
    आज को आज ही में जीना सीखा है

    न देकर कम न लेकर ज़्यादा हूँ
    ये सच सिखाके सीखना सीखा है

    तेरी ज़ुबां जानता नहीं हूँ पर
    उस ज़ुबां में भी हसना सीखा है

    मैं तुम हूँ, हाँ, एक और तुम हूँ मिसरा
    तुम्हें गले लगाना सीखा है