Month: April 2021

  • खालीपन

    क्यों उम्मीद करूं कि दिल में कोई प्यार भरे
    जब इंतिकाम के ऐलान से दिल दीवार भरे

    उसका भी दिल टूटा जब मेरा तोड़ा था उसने
    फिर क्यों दिल चाहे कि वो क़ीमत बार बार भरे

    प्यार के पर दिए पर किसीने सिखाया नहीं
    इन तूफानों में कैसे कोई रफ़्तार भरे

    मेरी तो किस्मत ही है कि वो घड़ी बनूं जो
    फिसलती रेत-ए-वक़्त से अपना इंतेज़ार भरे

    क्यों उस सिल्विया सा बनने चला हूँ ‘मिसरा’
    जिसने फ़ुज़ूल ही मायूसी के बेल्ल-जार भरे

  • मांगता है

    कभी खून तो कभी ये पेसाब मांगता है
    ये डॉक्टर तो पूरा ही हिसाब मांगता है

    एक भी पन्ने की पढ़ाई नहीं हूँ मैं
    पर मांगता है तो पूरी किताब मांगता है

    लौटाएगा तो बस दो ही आँख की रोशनी
    मगर बदले में पूरा आफ़ताब मांगता है

    दो-चार बोतल गुलकोज़ क्या चढ़ा दिए
    दाम में गंगा क्या झेलम चेनाब मांगता है

    क्यों हर इंसान मेरे जैसा नहीं ‘मिसरा’
    जो दवा के बदले बस शराब मांगता है

  • गुज़ारिश नहीं की

    मयनोशी की गुज़ारिश नहीं की
    मदहोशी की गुज़ारिश नहीं की

    रात को हंगामा ओढ़े सो गया
    ख़ामोशी की गुज़ारिश नहीं की

    सुबह तक दिल खुश था कि खूँ ने
    गर्मजोशी की गुज़ारिश नहीं की

    होश में था जब जर्राह ने दिल सीया
    बेहोशी की गुज़ारिश नहीं की

    शुक्र है बदनामी से बचने मैंने
    रूपोशी की गुज़ारिश नहीं की

    इस राज़ को शिक़वा है ‘मिसरा’ ने
    सरगोशी की गुज़ारिश नहीं की

  • क्या मैं हूँ

    कहीं शेर-ओ-ख़याल के दरमियान मैं हूँ
    या जो ये लिख रहा है वो इंसान मैं हूँ

    कईं आवाज़ें गूंज रहीं हैं ज़हन में
    क्या उन सभी आवाज़ों की पहचान मैं हूँ

    डॉक्टर कहती है छे शख़सियत हैं मुझमें
    हैं गर तो क्यों जान कर हैरान मैं हूँ

    एक अलग सी महफ़िल जम गयी है मन में
    माज़ी कईं हैं बस एक मेहमान मैं हूँ

    हर आवाज़ को अलग शेर लिखना है यहां
    शायद जो इन सबसे है परेशान मैं हूँ

    सुना है इंसानों में ये नहीं है आम
    क्या आदमखाल में फसा शैतान मैं हूँ

    इस मक़्ते में तेरा तख़ल्लुस है ‘मिसरा’
    उस तख़ल्लुस के पीछे का अनजान मैं हूँ

  • बेकार है

    हसा भी दो हसाना बेकार है
    यूँ मेरा मन बहलाना बेकार है

    काफ़ी कम नमक की आदत है मुझे
    समंदर घूमा ले जाना बेकार है

    खिड़की मत खोलो फ़र्श ठंडा ही ठीक है
    यूँ धूप की कालीन बिछाना बेकार है

    काबूस बन चुके हैं ये सारे सपने
    एक नया सपना दिखाना बेकार है

    बेहतर है शाईरी में मशरूफ़ रहूँ
    शाईरी से मशहूर होना बेकार है

    ज़र-ए-गुल से एलर्जी है ‘मिसरा’
    तुम्हारा गुलज़ार हो जाना बेकार है

  • ये दूरी की दिवार ऊंची

    यादों में सूरत तुम्हारी देख के दिन गुज़ारी है
    दिल में लेकिन ज़ोरों से रस्म-ए-इश्क़ जारी है

    ये दूरी की दिवार ऊंची, छाओं में उसके बैठ कर
    आशाओं की रौशनी अब नग्मों में उतारी है

    डरो मत इन बादलों से, दर्द जो बरसातें हैं
    अपने अश्कों की नमी से ही तो ये भी भारी हैं

    राह मुश्किल जितनी भी हो, साथ चलना है हमें
    काटों पे पैरों के कटने की पूरी तय्यारी है

    हाथ छोड़ें चोट खाकर, हम तो वो शायर नहीं
    हर चोट से मिसरा बहा दें वो कला हमारी है

  • कुछ ही पल में क़रीब इस क़दर हो गए

    कुछ ही पल में क़रीब इस क़दर हो गए
    सफ़र से पहले ही हमसफ़र हो गए

    असरदार कहते थे ख़यालों को मेरे
    आपसे मिलके सब बेअसर हो गए

    माना अलग हैं नज़रिये हमारे मगर
    तलाश-ए-ख़ुद में हमनज़र हो गए

    सिलसिला-ए-गुफ़्तगू चलती ही रहे
    ये उम्मीद है अलग हम अगर हो गए

  • कौन है जिसके ख़ौफ़ में यूँ

    दर दर हर दरवाज़े को मैं
    खट खट क्यों खटकाता हूँ
    कौन है जिसके ख़ौफ़ में यूँ
    घर घर घूम घबराता हूँ

    “धिक्कार है धिक्कार है
    तेरा हर काम बेकार है
    तू खुद का नमक-हराम है
    तू खुद का ही गद्दार है”

    शब शब इस शाबाशी को सुन
    पग पग क्यों पगलाता हूँ
    कौन है जिसके ख़ौफ़ में यूँ
    घर घर घूम घबराता हूँ

    “सब ने नाम कमाया है
    अपना वजूद बनाया है
    एक तू ही पिछड़ गया यहाँ
    दुनिया ने रेस लगाया है”

    किस किस के किस्मत के किस्से
    दो दो कर दोहराता हूँ
    कौन है जिसके ख़ौफ़ में यूँ
    घर घर घूम घबराता हूँ

    ये किस किसम का साया है
    जो हर ओर यूँ छाया है
    क्या मेरे ही आवाज़ में मुझको
    शैतां ने बुलाया है

    पथ पथ हर पत्थर को भी मैं
    पल पल क्यों पलटाता हूँ
    कौन है जिसके ख़ौफ़ में यूँ
    घर घर घूम घबराता हूँ

    दर दर हर दरवाज़े को मैं
    खट खट क्यों खटकाता हूँ
    कौन है जिसके ख़ौफ़ में यूँ
    घर घर घूम घबराता हूँ

  • मेज़

    मेज़ पे बैठा कवी, लिखने चला वो इक ग़ज़ल
    मन से चुन कर द्वेष सारी रख दी उसने इक बगल
    फिर भी ज़ुर्रत क्या हुई, कागज़ जो उससे रुठ गया
    छोड़ उसको मेज़ पर, कागज़ वहाँ से उठ गया

  • कागज़ के गेंदाफूल

    कटे मिसरों के घाव लिए
    बिखरे कागज़ के गेंदाफूल
    याद करते हैं उन लम्हों को
    जब क़लम का छूना भाता था

    लावारिस हलके झोकों में
    एक दूजे की दूरी को भेद
    बात करते हैं उन सपनों की
    जहाँ खुलके उड़ना आता था