Category: Hindi

  • बहुत छुट्टी मार ली

    चलो लिखने बैठो बहुत छुट्टी मार ली
    बस नाम के थके हो बहुत छुट्टी मार ली

    किसी और के पढ़ने के लिए न सही
    अपने लिए लिख दो बहुत छुट्टी मार ली

    तुम्हारा चक्रा खतम है तो क्या हुआ
    क्यूबि का निकालो बहुत छुट्टी मार ली

    आज तुम्हारे हाओशुको नु हाकी का
    इम्तिहान है मानलो बहुत छुट्टी मार ली

    कुछ न लिखने से कुछ भी लिखना बेहतर है
    ‘मिसरा’ का नाम रखलो बहुत छुट्टी मार ली

  • चुनूँ

    मुसलमान चुनूँ या हिंदू चुनूँ
    ख़ुदा का ही है जो बाज़ू चुनूँ

    फिर उछला है आज किस्मत का सिक्का
    फिर न पता कौनसा पहलू चुनूँ

    सनम का इत्र या माँ के परांठे
    चुनूँ भी तो कौनसी ख़ुशबू चुनूँ

    कौनसा हुस्न टपक रहा है उसका
    कि पैमाना छोड़ के चुल्लू चुनूँ

    मुझे कौन ही रू-ब-रू चुनेगी
    क्या किसी को मैं रू-ब-रू चुनूँ

    ज़हर की तलब न बुझी शेर से
    सांप चुनूँ ‘मिसरा’ या बिच्छू चुनूँ

  • कुछ नहीं

    याद में क़ुर्बानियों के सिवा कुछ नहीं
    है आंख में पानियों के सिवा कुछ नहीं

    सबके दिलों में झांकता रहा वो दरविश
    मिला वीरानियों के सिवा कुछ नहीं

    फ़ुज़ूल बसेरा ढूंढ रहे हो इस दिल में
    यहां कहानियों के सिवा कुछ नहीं

    सदके में क्या ही देता जब मेरे पास था
    इन परेशानियों के सिवा कुछ नहीं

    मेरी तबाही की अस्तियों में मिला
    मेरी नादानियों के सिवा कुछ नहीं

    मेरी इक्का राजा की जोड़ी हार गयी
    उसके हाथ रानियों के सिवा कुछ नहीं

    क्यों गुरूर करूं इन तालियों पे ‘मिसरा’
    ये मेहरबानियों के सिवा कुछ नहीं

  • यतिमस्तां

    देख वज़ीर की कैसी नमक-हरामी है
    मलिका से करता शीरीं-कलामी है

    ताज छोड़के कबका फ़क़ीर बन गया बादशाह
    शायद जानता था कि ताज बस ग़ुलामी है

    सूख कर पत्ते जब गिरे उसके कासे में
    जज़ामी जान गया पेड़ भी जज़ामी है

    सिपाही को डर है सर्दी में जंग होगी
    रात को भागता आया एक पयामी है

    सुबह उफ़क़ पे किसका परचम दिखेगा
    ये सवाल निजी ही नहीं अवामी है

    ख़ुदा शैतान दोनों की बोली लगी है
    कल तो पूरे मुल्क़ के कल की नीलामी है

  • बाद

    नई घास उगी है अब यलगारों के बाद
    गले मिलें हैं दुश्मन नुकसानों के बाद

    यकीं था फिरौन को वो बेमौत रहेगा
    महफूज़ इस मक़बरे में सदियों के बाद

    अपने नाम का धागा बांधा पेड़ पे माँ ने
    बेटियों के नाम के हज़ार धागों के बाद

    हैरान था काफ़िर मिलने ख़ुदा जब आया
    कि लायक था वो इतने गुनाहों के बाद

    लूटता ही रहा इस उम्मीद में डाकू
    कि मिलेगी नींद सारे ख़ज़ानों के बाद

    झूमता ही रहा ख़ुदा के नाम पे दरविश
    नादान ज़माने के सब ज़िल्लतों के बाद

    लिखते लिखते इतना याद रखना ‘मिसरा’
    काफ़ी और लिखना है इन अश’आरों के बाद

  • बचके रहियो

    कांटे पे खिली गुल से बचके रहियो
    शक में छिपे बिल्कुल से बचके रहियो

    तेरा गाना चुराने आती है हर दिन
    इस लुटेरी बुलबुल से बचके रहियो

    हसीना के राखी से दूर भागने वाले
    हसीना के काकुल से बचके रहियो

    आख़िर में जलाके जाएगी महबूबा
    इस मोहब्बत के पुल से बचके रहियो

    तेरे सब गुनाह ख़ुदा बक्श देगा ‘मिसरा’
    मौका-ए-तक़ाबुल से बचके रहियो

  • भुला कर

    हो चुका हूँ अपनी नादानी भुला कर
    अंधा ख़ुदाई दरख़शानी भुला कर

    रेशम के कपड़ों में सजता हूँ हर दिन
    करोड़ों कीड़ों की क़ुर्बानी भुला कर

    आती है क्यों मेरे मकान पे वो बुलबुल
    हर शाम अपनी मकां आसमानी भुला कर

    मुश्किल था जहां से रिहा करना उसको
    उसकी वो निग़ाहें नूरानी भुला कर

    भूल जाता हूँ अकसर बात करने उससे जो
    बात करती रही हर शैतानी भुला कर

    दूर रहता रहा उसके हर खत से मैं भी
    वो लिखावट उसकी मस्तानी भुला कर

    इस पल में हूँ शुकर गुज़ार उनका ‘मिसरा’
    जिया हूँ जिनकी मेहेरबानी भुला कर

  • दास्तान-ए-महबूब-ओ-महबूबा

    पर्दे में आया था चाँद बादल के पीछे
    इंतिज़ार में था महबूब पीपल के पीछे

    शीशे में साफ़ दिख रहा था महबूबा को
    जो बे-ख़्वाबी छिपी थी काजल के पीछे

    थर्राने से कैसे रोकता दिल को महबूब
    उसने खंजर पहनी थी मलमल के पीछे

    खिड़की पे टंगा खाली पिंजरा जानता था
    क्या राज़ था सुर्खी के हलाहल के पीछे

    खिड़की दरवाजों से निकले कई साये
    जब बारिश गिरने लगी जंगल के पीछे

    मुड़ मुड़ के देखती रही वफ़ादार कनीज़
    कुछ क़ातिल थे छनकते पायल के पीछे

    क़ातिल भी जान गए वो बेकार पड़े थे
    महबूब के कपड़ों में इक पागल के पीछे

    बस कुछ पहाड़ी लक्कड़बाज़ों ने देखा
    दरिया में थे इंसान संदल के पीछे

    न तो सुर्खी लगी किसी के होठों पे
    न खून फैला किसी के कम्बल के पीछे

    जब रात भर मिले नहीं महबूब-महबूबा
    कनीज़-पागल को बांधा मक़तल के पीछे

    क्या खबर थी शोर मचाने वालों को कौन
    बुर्के में थी कौन सूजी शकल के पीछे

    पूछना कभी पीपल के कौओं से ‘मिसरा’
    किनकी चीखें थी सारी हलचल के पीछे

  • वक़्त नहीं है

    ख़ाहिश पूरी कर देता पर वक़्त नहीं है
    उतार के क़मर देता पर वक़्त नहीं है

    जानता हूँ इस मसरूफ़ियत से शिक़वे हैं
    शिक़वों को नज़र देता पर वक़्त नहीं है

    तुमने साड़ी में भेजी है तस्वीर अपनी
    उसमें सिंदूर भर देता पर वक़्त नहीं है

    मुझे पड़ी होती रोज़गारी की अगर
    खोल अपना दफ़्तर देता पर वक़्त नहीं है

    मैं सुबह से बैठा हूँ कागज़ पे ‘मिसरा’
    तुझे दोपहर देता पर वक़्त नहीं है

  • दिवाली है

    घर घर जलते पटाखों की दिवाली है
    डरे डरे परिंदों की दिवाली है

    धुएं ने तारे ढक लिए तो क्या हुआ
    आज हवाई लालटेनों की दिवाली है

    खिड़कियों से कपड़े उतर गयें हैं आज
    मदहोश भटके रॉकेटों की दिवाली है

    पड़ोसी जल जाए यूँ सजे हुए हैं
    इमारती दुल्हनों की दिवाली है

    रात भर चलेंगे हाईवे की अंधेरों में
    आज जिस्मानी बाज़ारों की दिवाली है

    कल से फिर जिन्हें कोई नहीं पूछेगा
    आज उन लावारिस बच्चों की दिवाली है

    कुछ तक़लीफ़ें हैं पर ये भी सच है कि आज
    मिसरा खानदान में अपनों की दिवाली है