दास्तान-ए-महबूब-ओ-महबूबा

पर्दे में आया था चाँद बादल के पीछे
इंतिज़ार में था महबूब पीपल के पीछे

शीशे में साफ़ दिख रहा था महबूबा को
जो बे-ख़्वाबी छिपी थी काजल के पीछे

थर्राने से कैसे रोकता दिल को महबूब
उसने खंजर पहनी थी मलमल के पीछे

खिड़की पे टंगा खाली पिंजरा जानता था
क्या राज़ था सुर्खी के हलाहल के पीछे

खिड़की दरवाजों से निकले कई साये
जब बारिश गिरने लगी जंगल के पीछे

मुड़ मुड़ के देखती रही वफ़ादार कनीज़
कुछ क़ातिल थे छनकते पायल के पीछे

क़ातिल भी जान गए वो बेकार पड़े थे
महबूब के कपड़ों में इक पागल के पीछे

बस कुछ पहाड़ी लक्कड़बाज़ों ने देखा
दरिया में थे इंसान संदल के पीछे

न तो सुर्खी लगी किसी के होठों पे
न खून फैला किसी के कम्बल के पीछे

जब रात भर मिले नहीं महबूब-महबूबा
कनीज़-पागल को बांधा मक़तल के पीछे

क्या खबर थी शोर मचाने वालों को कौन
बुर्के में थी कौन सूजी शकल के पीछे

पूछना कभी पीपल के कौओं से ‘मिसरा’
किनकी चीखें थी सारी हलचल के पीछे

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