Category: Hindi

  • इंतिज़ार

    मंगल को जब घर से निकल रही होगी
    क्या मुझसे मिलने वो मचल रही होगी

    मैं जल रहा हूं इस यकीं में कि वो भी
    मेरी यादों की आग में जल रही होगी

    उसे छूंने की तमन्ना खूब है मुझ में
    न जाने कैसे वो संभल रही होगी

    उसे देखते ही बेशक जम जाऊंगा मैं
    और हाथ में आइस क्रीम पिघल रही होगी

    आस पास तो सब धीमा धीमा हो जाएगा
    बस मेरी सांस है कि तेज़ चल रही होगी

    बेखबर मेरे इन हालातों से वो भी
    बेखयाली में अपने टहल रही होगी

    अर्सों बाद एक दूजे से मिल रहे होंगे
    हम दोनों की किस्मत बदल रही होगी

    जो अब जाके मोहब्बत रही है निकल
    वो सालों से अंदर उछल रही होगी

    रहा हूंगा कभी संगेमर्मर मैं उसका
    कभी वो मेरी ताज महल रही होगी

    उसका इस क़दर हिस्सा बन गया मिसरा
    किसी ज़माने वो ग़ज़ल रही होगी

  • आम रखना

    आज खिड़की पे कुछ कटे हुए आम रखना
    एक बुलबुल भेजा है मेरा पैग़ाम रखना

    तुम मसरूफ़ रहो अपने में हर सवेरे
    पर मेरे हिस्से में अपना हर शाम रखना

    मेरी हर सांस गुज़रेगी तेरी ज़ुल्फ़ों से
    अपनी चोटी में ज़रा सा आराम रखना

    मैं जल्द आऊंगा तुमसे रूबरू होने
    जिसकी बात हुई तय्यार वो इनाम रखना

    शरम हया तो मैंने कब की छोड़ दी है
    रख सको तो तुम अपने गाल गुल्फ़ाम रखना

    ज़माने से छुपाने लब पर जो रखो
    इरादों में मगर ‘मिसरा’ ही नाम रखना

  • सलामत रखना

    हम दोनों की खुदी को सलामत रखना
    इस मोहब्बत नयी को सलामत रखना

    बुलबुल को रश्क़ है जिसकी मीठी आवाज़ से
    उस सुरीली हसी को सलामत रखना

    उसे डर है कि किसी दिन टूट जाएगी
    उसकी नाज़ुक खुशी को सलामत रखना

    तेरी रहमत क़ुबूलने दिल वापिस जोड़ा
    इस कासे की हस्ती को सलामत रखना

    खूब खेलने लगा मुझमें छिपा बच्चा
    उसमें छिपी बच्ची को सलामत रखना

    जिसके लिए कुर्बान हो सकता है ‘मिसरा’
    उसकी सलामती को सलामत रखना

  • कुछ कुछ

    फिर कि‍सी से मोहब्बत करने लगा हूँ 
    पर इस बार नतीजों से डरने लगा हूँ 

    कुछ खूबसूरत सा है हमारे दरमियाँ 
    उसकी आवाज़ सुन के मन भरने लगा हूँ 

    आँख मिचौली खेलता है चेहरा उसका 
    हर हरकत-ए-हसी पे मरने लगा हूँ 

    क्या मशालें जलतीं हैं नैनों में उसके 
    अंधे कूंओं से फिर उभरने लगा हूँ 

    पर जानके कितनी ज़हर भरी है मुझमें 
    राह-ए-इज़हारी से मुकरने लगा हूँ 

    मुझ संग बिखर ना जाए जिंदगी उसकी 
    यही सोच कर ख़ुद बिखरने लगा हूँ 

    इसी जुस्तजू के बहाने ही सही 
    अपने ज़मीर से फिर बात करने लगा हूँ 

    ज़मीर कहता है ज़ुबां से दूर हूँ ‘मिसरा’ 
    पर देख सियाही में उतरने लगा हूँ

  • दफ़्तरवाले

    अपने ही दफ़्तर में अजनबी हूँ
    सबकी रुकावट-ए-तरक्की हूँ

    मैं आते ही सब चुप हो जाते हैं
    जैसे बोलने पे एक बंदगी हूँ

    जब काम से जाता हूँ उनके पास मैं
    उन्हें लगता है मैं मतलबी हूँ

    मुझे बर्दाश्त ऐसे करते हैं कि
    वो कमल हैं और मैं गंदगी हूँ

    उन्हें अलग मज़हब बनाना है
    तो हाँ ‘मिसरा’ मैं भी मज़हबी हूँ

  • सिवाय…

    कोई तो सुन लो इन दीवारों के सिवा
    कुछ ग़ज़ल भी हैं मेरे शिक़वों के सिवा

    कभी आओ देखो मेरा कमरा यहां
    सब बराबर रखता हूँ वादों के सिवा

    मेरी किताबों से मिल कर खुश हैं ग़ुलाब
    कि घर है इनका तेरे बाग़ों के सिवा

    कुछ नहीं जिसपे भरोसा न कर सको
    मेरी इन मीठी मीठी बातों के सिवा

    सब हारोगे मेरे सामने कुछ न होगा
    दाव पे लगाने जज़्बातों के सिवा

    मुझे गर जानना है तो साथ चलो ‘मिसरा’
    जहां कोई न हो हम दोनों के सिवा

  • कौन सुनेगा

    और की फरियादें कौन सुनेगा
    एक सी हैं हालतें कौन सुनेगा

    रोतें हैं गुलाब जब बाग़बान के हाथ
    कट जाते हैं कांटें कौन सुनेगा

    बजे चाहे हर दिन वो धुन जिसपे
    झूमतीं हैं बरसातें कौन सुनेगा

    नींद में हैं जो जुर्म में नहीं शामिल
    चीख रहीं है रातें कौन सुनेगा

    मैंने किसी की सुनी नहीं जब
    आज मेरी ये बातें कौन सुनेगा

    अफ़सोस सिर्फ़ करम बोलता है ‘मिसरा’
    साफ़ होंगीं इरादें कौन सुनेगा

  • हादसा

    मुद्दतों बाद फिर से सामने खड़ा कर दिया
    क्या खाईश है ख़ुदा का जो ये हादसा कर दिया

    एक दूजे के आंसुओं के इंतेज़ार में थे क़ैद
    बारिश ने रहम की और हमें रिहा कर दिया

    कुछ फ़ुज़ूल सी बातें करने लगे हम दोनों
    इन महीनों में ये हुआ फलाना कर दिया

    बार बार वो पूछती रही कि सब ठीक है न
    उसे डर था जुदाई ने दीवाना कर दिया

    मुझे खुशी थी कम-से-कम वो खुश दिख रही है
    तो गुस्से की आग को ही मैंने स्वाहा कर दिया

    मैंने चेहरे पे बड़ी सी मुस्कान रखके उसे
    एक नैपकिन का ग़ुलाब देके रवाना कर दिया

    फिर उतनी ही तक़लीफ़ हुई रूह-ओ-दिल में ‘मिसरा’
    हमने दोबारा एक दूजे को मना कर दिया

  • नौकरी कौन देगा

    मेरी शर्तों पे मुझे नौकरी कौन देगा
    काफ़ी हैं मेरे नख़रे नौकरी कौन देगा

    पैसा ख़ूब चाहिए पर घंटे बहुत कम
    ऐसी मांगों को सुनके नौकरी कौन देगा

    खुली लग़ाम भी हो और मैं पहनूं भी न
    यूँ मनमर्ज़ी चलाने नौकरी कौन देगा

    जो सब को ख़ुद मना किये जा रहा है
    उसी को फिर मनाके नौकरी कौन देगा

    हज़ारों हैं मेरे जैसे दिमाग़वाले
    उन सब में मुझे चुनके नौकरी कौन देगा

    अब तो ख़ुद का ही कुछ खोलना होगा ‘मिसरा’
    मेरे अलावा मुझे नौकरी कौन देगा

  • नफ़्स

    जिहाद-ए-असग़र जीत के दुनिया हासिल किया
    पर अंदर नफ़्स से हार गए तो क्या हासिल किया

    डूबे ही रहे अपने ज़रूरतों में गर तुम
    तुमने बस अपना नफ़्स-अल-अम्मारा’ हासिल किया

    ज़माने को बक्श कर की ख़ुद से सवालात जिसने
    उसी ने अपना नफ़्स-अल-लुव्वामा’ हासिल किया

    न गुरूर हो न नाज़ हो अपनी नैकि पे जिसे
    समझो उसीने नफ़्स-अल-मुल्लामा’ हासिल किया

    दिल में सख़ावत रख के जिसने की तस्लीम-ए-जान
    उसी ने तो नफ़्स-अल-मुतमा’इना’ हासिल किया

    जो न कल में न कल में बस अभी में जीता हो
    जान लो उसने नफ़्स-अल-रदिय्या’ हासिल किया

    जो खुद चराग़ बनके ख़ुदा की रोशनी फैलाये
    देखो उसीने नफ़्स-अल-मर्दिय्या’ हासिल किया

    दुनिया का हो के भी होगा इंसान-ए-क़ामिल
    अगर किसीने नफ़्स-अल-सफ़िय्या’ हासिल किया