डर के आने का डर

डर के आने के डर से घबराता रहा
शोख़ पत्ते सा टहनी पे थर्राता रहा

जान न पाया कैसे निकलना है बाहर
कबूतर सा शीशे से टकराता रहा

हर माह मेहमान सा आता रहा डर
हर माह मेज़बान सा ठहराता रहा

चालीसा सिखाया था दादी ने कभी
मैं मिट्ठू सा उसे दोहराता रहा

डर कूदता रहा मुझपे झरने सा ‘मिसरा’
और डूबते भंवर सा मैं चकराता रहा


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