जाने जो कहो ये तोे ज़रूर है
शायरी का अलग ही सुरूर है
इबादत है ग़ज़लें लिखना मगर
तुम कहते हो मेरा ये ग़ुरूर है
रोज़ाना शेरों का बुनना बुनवना
आदत नहीं मेरा ये दस्तूर है
इजाज़त दो जुमले कस्ता रहूँ मैं
फिर कोई शर्त दो वो मंज़ूर है
खोलके खिड़की खुद देखलो तुम
जो बह रहा फ़िज़ा-ए-फ़ितूर है
लिखो एक मिसरा महसूस करलो
शायरी का अलग जो सुरूर है
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One response to “सुरूर-ए-शायरी”
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