रोज़ कागज़ के हाथों फटना पड़ता है
शायर हूँ शायरी से कटना पड़ता है
शायरी वो जंग है जिसमें हर शायर को
आप ही मुक़ाबिल अपने डटना पड़ता है
इतना ज़िद्दी हूँ कि कभी गर अड़ जाऊं
गऊ तक को रास्ते से हटना पड़ता है
इक कौम का गुस्सा बुझाने दूसरे कौम पे
क्यों इक नए हादसे को घटना पड़ता है
हिंदी उर्दू तो दोनों के ज़ुबां पे हैं
इन्हें क्यों मजहबों में बटना पड़ता है
कायरों ने ऐसी आग लगाई है ‘मिसरा’
शायरों को ये धुंआ छटना पड़ता है
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