मिन्नु का टॉफ़ी

मिन्नु का टॉफ़ी मिन्नु सा नहीं था ।
जहां जहां मिन्नु बल्लून सा फूला था,
वहां वहां टॉफ़ी डोर सा पतला था।
जहां मिन्नु का ग़ुरूर उसे हवा में उडाता था
वहां टॉफ़ी का डोर उसे ज़मीन पे ले आता था।

मिन्नु से पूछता था, “ऊपर पहुँचके करोगे क्या?
बादलों में तुम्हारी कोई अहमियत तोह है नहीं।
अंदर महसूस होते peer pressure से फ़ट जाओगे।
यहीं रुको, किसी के चेहरे पे smile तोह ले आओगे।”

वैसे उड़ने का शोक टॉफ़ी को भी था,
पर कटे पतंग के अनाथ मांझे सा नहीं।
बेहेन की राखी से छूटे भाई की हँसी पर उड़ना था उसे।
किसी पेड़ पे बंधी दुआओं पर उड़ना था उसे।
कहता था
“उड़ना ही है तोह ख़ुशी फैला के उड़ो।
चरखे की सूती सा धुल चला के उड़ो।
खुद में गरम हवा भरने का क्या मोल है?
बाती के धुएं पे रौशनी जला के उड़ो।”

दो साल होगये हैं अब तोह।
खींचा तानी का खेल अभी भी चालु है।
मिन्नु अब भी घर बादलों में ढूंढ रहा है
और टॉफ़ी किसी दरगाह पे बिछी चद्दर में।


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Comments

One response to “मिन्नु का टॉफ़ी”

  1. […] Translated from my Hindi poem, मिन्नु का टॉफ़ी […]

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