इंतिज़ार

मंगल को जब घर से निकल रही होगी
क्या मुझसे मिलने वो मचल रही होगी

मैं जल रहा हूं इस यकीं में कि वो भी
मेरी यादों की आग में जल रही होगी

उसे छूंने की तमन्ना खूब है मुझ में
न जाने कैसे वो संभल रही होगी

उसे देखते ही बेशक जम जाऊंगा मैं
और हाथ में आइस क्रीम पिघल रही होगी

आस पास तो सब धीमा धीमा हो जाएगा
बस मेरी सांस है कि तेज़ चल रही होगी

बेखबर मेरे इन हालातों से वो भी
बेखयाली में अपने टहल रही होगी

अर्सों बाद एक दूजे से मिल रहे होंगे
हम दोनों की किस्मत बदल रही होगी

जो अब जाके मोहब्बत रही है निकल
वो सालों से अंदर उछल रही होगी

रहा हूंगा कभी संगेमर्मर मैं उसका
कभी वो मेरी ताज महल रही होगी

उसका इस क़दर हिस्सा बन गया मिसरा
किसी ज़माने वो ग़ज़ल रही होगी


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