कुछ कुछ

फिर कि‍सी से मोहब्बत करने लगा हूँ 
पर इस बार नतीजों से डरने लगा हूँ 

कुछ खूबसूरत सा है हमारे दरमियाँ 
उसकी आवाज़ सुन के मन भरने लगा हूँ 

आँख मिचौली खेलता है चेहरा उसका 
हर हरकत-ए-हसी पे मरने लगा हूँ 

क्या मशालें जलतीं हैं नैनों में उसके 
अंधे कूंओं से फिर उभरने लगा हूँ 

पर जानके कितनी ज़हर भरी है मुझमें 
राह-ए-इज़हारी से मुकरने लगा हूँ 

मुझ संग बिखर ना जाए जिंदगी उसकी 
यही सोच कर ख़ुद बिखरने लगा हूँ 

इसी जुस्तजू के बहाने ही सही 
अपने ज़मीर से फिर बात करने लगा हूँ 

ज़मीर कहता है ज़ुबां से दूर हूँ ‘मिसरा’ 
पर देख सियाही में उतरने लगा हूँ


Discover more from Minakhi Misra

Subscribe to get the latest posts sent to your email.