क्यों उम्मीद करूं कि दिल में कोई प्यार भरे
जब इंतिकाम के ऐलान से दिल दीवार भरे
उसका भी दिल टूटा जब मेरा तोड़ा था उसने
फिर क्यों दिल चाहे कि वो क़ीमत बार बार भरे
प्यार के पर दिए पर किसीने सिखाया नहीं
इन तूफानों में कैसे कोई रफ़्तार भरे
मेरी तो किस्मत ही है कि वो घड़ी बनूं जो
फिसलती रेत-ए-वक़्त से अपना इंतेज़ार भरे
क्यों उस सिल्विया सा बनने चला हूँ ‘मिसरा’
जिसने फ़ुज़ूल ही मायूसी के बेल्ल-जार भरे
So, what did you think about this?