मैं जाना था तुम ज्ञानी हो ।
अब लगता है अभिमानी हो ।
भुलाके सारे यौवन वर्ष
स्मरण है केवल एक दिवस?
जब तर्क तर्क में फर्क उठा,
टेके फणा एक सर्प उठा,
विषैले शब्द और क्रोध कठोर
थे कोटी कोटी क्षत दोनों ओर ।
थे छल छल दोनों के नयन
पर छूने का न किया चयन ।
कटके उस दिन दो राह चले
करके काजल को स्याह चले ।
माना उस दिन हम बच्चे थे ।
नादान, हृदय के कच्चे थे ।
पर अब तो पक के गल चुके
देख हज़ार हलचल चुके ।
कब तक जलें अभिमान में ?
आ मिलें सुलह संधान में ।
क्या मेरे कम हैं नखरें सब
कि जोड़ोगे उसमें तुम अब ?
गर द्वेष अभी भी है प्रखर
लो झुकता हूं नत के मैं सर ।
बस जल्दी से इंसाफ़ करो –
या दे दो दंड या माफ़ करो ।
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One response to “पुनः मिलन”
[…] Translated from my Hindi poem, पुनः मिलन […]
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