ट्रैन की खिड़की से बाहर झांकता हूँ
तो शीशे पे ख़ुद ही का चेहरा दिख जाता है।
आँखों में जो तलाश पनप रही है
वही तलाश को रूबरू पा कर समझ नहीं आ रहा
कि अब एहसाँसों के मायेने ढूंढना छोड़ दूँ क्या?
नींद का बोझ मुश्किल से संभाल रहा हूँ।
खुदसे नज़र मिलाने के लिए भी तो
पलकों का भर उठाना पड़ता है।
कुछ अस्कों का सैलाब बहने लगा है।
उस से बुझी सपनों की रौशनी को फिर से जलाना पड़ेगा।
जो नज़्म ख़ुशी के हसियों में नहीं खिलखिलाये
शायद ग़म के खामोश साँसों में निकल जाएँगी वो।
इसी बहाने शायद थोड़ा लिहने का बुखार उतर जाएगा।
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One response to “ट्रैन की खिड़की”
[…] Translated from my Hindi poem, ट्रैन की खिड़की […]
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